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सनातन धर्म का शैव सम्प्रदाय... 

शिव का शाब्दिक अर्थ है 'शुभ'... 'कल्याण'... 'मंगल'... 'श्रेयस्कर' आदि... 

*** यजुर्वेद के शतरुद्रिय अध्याय, तैत्तिरीय आरण्यक और श्वेताश्वतर उपनिषद में शिव को ईश्वर माना गया है... उनके "पशुपति" रूप का संकेत सबसे पहले अथर्वशिरस उपनिषद में पाया जाता है... जिसमें पशु, पाश, पशुपति आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है... इससे लगता है कि उस समय से पशुपात सम्प्रदाय बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी...

*** रामायण-महाभारत के समय तक "शैवमत"... "शैव" अथवा "माहेश्वर" नाम से प्रसिद्ध हो चुका था...

*** विशेषताएं...

1. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान शिव ईश्वर हैं... जिनकी परम सत्ता, पराशिव, दिक्काल और रुप से परे है... योगी मौन रुप से उसे "नेति नेति" कहते हैं... जी हाँ... भगवान शिव ऐसे ही अबोधगम्य भगवान हैं...

2. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वाश है कि भगवान शिव ईश्वर हैं... जिनके प्रेम की सर्वव्यापी प्रकृति, पराशक्ति, आधारभूत, मूल तत्व या शुद्ध चेतना है... जो सभी स्वरुपों से ऊर्जा, अस्तित्व, ज्ञान और परमानन्द के रुप में बहती रहती है...

3. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान शिव ईश्वर हैं... जिनकी सर्वव्यापी प्रकृति परम् आत्मा, सर्वोपरि महादेव, परमेश्वर, वेदों एवं आगमों की प्रणेता तथा सभी सत्ताओं की कर्ता भर्ता एवं हर्ता हैं...

4. शिव के सभी अनुयायी शिव-शक्ति के पुत्र महादेव भगवान गणेश में विश्वास करते हैं तथा कोई भी पूजा या कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उनकी पूजा अवश्य करते हैं... उनका नियम सहानुभूतिशील है... उनका विधान न्यायपूर्ण है... न्याय ही उनका मन है...

5. शिव के सभी अनुयायी शिव - शक्ति के पुत्र महादेव कार्तिकेय में विश्वास करते हैं... जिनकी कृपा का वेल अज्ञान के बंधन को नष्ट कर देता है... योगी पद्मासन में बैठकर मुरूगन की उपासना करते हैं... इस आत्मसंयम से... उनका मन शांत हो जाता है...

6. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि सभी आत्माओं की रचना भगवान शिव ने की है और वे तद्रूप (उन्ही जैसी) हैं तथा जब उनकी कृपा से अणव, कर्म और माया दूर हो जाएगी, तो सभी आत्माएं इस तद्रूपता का पूर्ण साक्षात्कार कर लेंगी...

7. शिव के सभी अनुयायी तीन लोकों में विश्वास करते हैं... स्थूल लोक [भूलोक] जहां सभी आत्माएं भौतिक शरीर धारण करती हैं... सूक्ष्म लोक [अंतर्लोक] जहां आत्माएं सूक्ष्म शरीर धारण करती हैं... तथा कारण लोक [शिवलोक] जहां आत्माएं अपने स्व-प्रकाशमान स्परुप में विद्यमान रहती हैं...

8. शिव के सभी अनुयायी कर्म के विधान में विश्वास करते हैं... कि सबको अपने सभी कर्मों का फल अवश्य मिलता है... और यह कि सभी कर्मों के नष्ट होने तक और मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होने तक सभी आत्मा बार-बार शरीर धारण करती रहती हैं...

9. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि ज्ञान या प्रज्ञा प्राप्त करने के लिए चर्या या धार्मिक जीवन, क्रिया या मंदिर में पूजा और जीवित सत्गुरू की कृपा से योगाभ्यास अत्यावश्यक है... जो पराशिव की और ले जाता है...

10. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है अशुभ या अमंगल का कोई तात्त्विक अस्तित्व नहीं है... जब तक अशुभ के आभास का स्रोत अज्ञान स्वयं न हो, अशुभ का कोई स्रोत नहीं है... शैव हिन्दू वास्तव में दयालु होते हैं... वे जानते हैं कि अन्ततः कुछ भी शुभ या अशुभ नहीं है... सबकुछ शिव की इच्छा है...

11. शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि तीनों लोकों द्वारा सामंजस्यपूर्वक एक साथ कार्य करना धर्म है और यह कि यह सामंजस्य मंदिर में पूजा करके उत्पन्न किया जा सकता है... जहां पर तीनों लोकों की सत्ताएं संप्रेषण कर सकती हैं...

12. शिव के सभी अनुयायी पंचाक्षर मंत्र, पांच पवित्र अक्षरों से बने मंत्र "नमः शिवाय" में विश्वास करते हैं... जो शैव संप्रदाय का प्रमुख और अनिवार्य मंत्र है... "नमः शिवाय" का रहस्य इसे सही होठों से सही समय पर सुनना है...

[ विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं तथा शिव भक्त शैव्य | पर वास्तव में अन्य कुछ धर्म एंव समुदाय के विपरीत वैष्णव तथा शैव्य हिन्दू धर्म में संघर्ष का कारण नहीं होते| वस्तुतः शैव्य विष्णू को भी पुजते हैं तथा वैष्णव शिव को भी पूजते हैं| तो वैष्णव तथा शैव्य सिर्फ अपने प्रमूख ईष्ट की मान्यता में एक दूसरे से अलग हैं| वैष्णव भगवान विष्णु को सव देवों में श्रेष्ठ मानता है तथा उन्हे त्रिदेवों से उपर परमेश्वर मानता है, तो शैव्य देवाधिदेव सर्वेश्वर शिव को परमेश्वर जानता है| यह आदि काल से चली आ रही परंपरा है... स्वंय वेद एवं पूराण अनेक उदाहरण प्रस्तूत करते हैं जिसमे शिव तथा विष्णु एक दूसरे को अपना ही स्वरूप तथा परस्पर आदर्श बतलाते हैं]...

 

नाथ सम्प्रदाय

नाथ शब्द अति प्राचीन है । अनेक अर्थों में इसका प्रयोग वैदिक काल से ही होता रहा है । नाथ शब्द नाथृ धातु से बना है, जिसके याचना, उपताप, ऐश्वर्य, आशीर्वाद आदि अर्थ हैं -

“नाथृ नाथृ याचञोपता-पैश्वर्याशीः इति पाणिनी” । अतः जिसमें ऐश्वर्य, आशीर्वाद, कल्याण मिलता है वह “नाथ” है ।
‘नाथ’ शब्द का शाब्दिक अर्थ – राजा, प्रभु, स्वामी, ईश्वर, ब्रह्म, सनातन आदि भी है ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त १२९ में नाथ के बारे में कहा गया है कि -

को अद्धावेदः कः इह, प्रवोचस्कतु आजातकुत इयं वि सृष्टि ।
आवीग्देवा अस्य विसर्जने नाथा, को वेदयत आवाभूय शंभूयति ।।

अर्थात् – यह सृष्टि कहाँ से हुई ? इस तत्त्व को कौन जानता है ? किसके द्वारा हुई ? क्यों हुई ? कब से हुई ? इत्यादि विषय के समाधानकर्ता व पथ-दृष्टा नाथ ही हैं ।
इस प्रकार प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में ‘नाथ’ का प्रयोग सृष्टिकर्ता, ज्ञाता तथा सृष्टि के निमित्त रुप में मिलता है । ‘अथर्ववेद’ में भी ‘नाथ’ एवं ‘नाथित’ शब्दों का प्रयोग मिलता है ।
नाथ सम्प्रदाय के विश्वकोष ‘गोरक्ष-सिद्धान्त-संग्रह′ में उद्धृत ‘राजगुह्य’ एवं शक्ति संगम तंत्र’ ग्रन्थों में नाथ शब्द की व्याख्या दी गई हैं । ‘राज-गुह्य’ के अनुसार ‘नाथ’ शब्द में ‘ना’ का अर्थ है – ‘अनादि रुप’ और ‘थ’ का अर्थ है - ‘(भुवन त्रय) का स्थापित होना’ ।
नाकारोऽनादि रपं थकारः स्थापते सदा ।
भुवन-त्रयमेवैकः श्री गोरक्ष नमोऽस्तुते ।।

इस कारण नाथ सम्प्रदाय का स्पष्टार्थ वह अनादि धर्म है, जो भुवन-त्रय की स्थिति का कारण है । श्री गोरक्ष को इसी कारण से ‘नाथ’ कहा जाता है । ‘शक्ति-संगम-तंत्र’ के अनुसार ‘ना’ शब्द का अर्थ - ‘नाथ ब्रह्म जो मोक्ष-दान में दक्ष है, उनका ज्ञान कराना हैं’ तथा ‘थ’ का अर्थ है – ‘ज्ञान के सामर्थ्य को स्थगित करने वाला’ -

श्री मोक्षदान दक्षत्वान् नाथ-ब्रह्मानुबोधनात् ।
स्थगिताज्ञान विभवात श्रीनाथ इति गीयते ।।

चूंकि नाथ के आश्रयण से इस नाथ ब्रह्म का साक्षात्कार होता है और अज्ञान की वृद्धि स्थगित होती है, इसी कारण नाथ शब्द व्यवहृत किया जाता है ।

संस्कृत टीकाकार मुनिदत्त ने ‘नाथ’ शब्द को ‘सतगुरु’ के अर्थ में ग्रहण किया है । ‘गोरखबाणी’ में सम्पादित रचनाओं में नाथ शब्द दो अर्थों में व्यवहृत हैं ।
(१) रचयिता के रुप में तथा
(२) परम तत्त्व के रुप में ।

‘गोरक्ष-सिद्धान्त-संग्रह′ ग्रन्थ के प्रथम श्लोक में सगुण और निर्गुण की एकता को ‘नाथ’ कहा गया है -

निर्गुणवामभागे च सव्यभागे उद्भुता निजा ।
मध्यभागे स्वयं पूर्णस्तस्मै नाथाय ते नमः ।।

नेपाल के योगीराज नरहरिनाथ शास्त्री के अनुसार ‘नाथ’ शब्द पद ईश्वर वाचक एवं ब्रह्म वाचक है । ईश्वर की विभूतियाँ जिस रुप में भी जगत में विद्यमान हैं, प्रायः सब नाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं । जैसे –

आदिनाथ, पशुपतिनाथ, गोरक्षनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गणनाथ, सोमनाथ, नागनाथ, वैद्यनाथ, विश्वनाथ, जगन्नाथ, रामनाथ, द्वारकानाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ, अमरनाथ, एकलिंगनाथ, पण्डरीनाथ, जालंधरनाथ आदि असंख्य देवता हैं । उनकी पावन स्मृति लेकर नाथ समाज (नाथ सम्प्रदाय) ‘नाथान्त’ नाम रखता है ।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी की भावना रखी जाती है । नाथ सम्प्रदाय के सदस्य उपनाम जो भी लगते हों, किन्तु मूल आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, संतोषनाथ, अचलनाथ, कंथड़िनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, जलंधरनाथ आदि नवनाथ चौरासी सिद्ध तथा अनन्त कोटि सिद्धों को अपने आदर्श पूर्वजों के रुप में मानते हैं । मूल नवनाथों से चौरासी सिद्ध हुए हैं और चौरासी सिद्धों से अनन्त कोटि सिद्ध हुए । एक ही ‘अभय-पंथ’ के बारह पंथ तथा अठारह पंथ हुए । एक ही निरंजन गोत्र के अनेक गोत्र हुए । अन्त में सब एक ही नाथ ब्रह्म में लीन होते हैं । सारी सृष्टि नाथब्रह्म से उत्पन्न होती है । नाथ ब्रह्म में स्थित होती हैं तथा नाथ ब्रह्म में ही लीन होती है । इस तत्त्व को जानकर शान्त भाव से ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए ।

नवनाथ चौरासी सिद्ध बारह पंथ
नवनाथ
नाथ सम्प्रदाय के सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुए हैं । वैसे नवनाथों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है, किन्तु वर्तमान नाथ सम्प्रदाय के १८-२० पंथों में प्रसिद्ध नवनाथ क्रमशः इस प्रकार हैं -

१॰ आदिनाथ - ॐ-कार शिव, ज्योति-रुप
२॰ उदयनाथ - पार्वती, पृथ्वी रुप
३॰ सत्यनाथ - ब्रह्मा, जल रुप
४॰ संतोषनाथ - विष्णु, तेज रुप
५॰ अचलनाथ (अचम्भेनाथ) - शेषनाग, पृथ्वी भार-धारी
६॰ कंथडीनाथ - गणपति, आकाश रुप
७॰ चौरंगीनाथ - चन्द्रमा, वनस्पति रुप
८॰ मत्स्येन्द्रनाथ - माया रुप, करुणामय
९॰ गोरक्षनाथ - अयोनिशंकर त्रिनेत्र, अलक्ष्य रुप

     

                                               


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